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कहानी

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Chandamama Ki Kahaniyan - PP943 - कहानी..
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चेखव संसार के श्रेष्ठ कहानीकारों में से हैं। उन्होंने अपनी कला को चमत्कारी बनाने के लिए न तो अनोखी घटनाएँ ढूँढ़ीं हैं, न अनूठे पात्रों की सृष्टि की है। उनके पात्र ऐसे हैं, जिनसे अपने नित्य प्रति के जीवन में हम अकसर मिलते हैं। खासतौर से उच्च वर्गों के आडंबरपूर्ण जीवन में, उनके बनावटी शिष्टाचार के नीच..
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ईश्‍वर ने अभी-अभी इस पृथ्वी की रचना की थी। उन्होंने एक कदम पीछे हटकर उसे मुग्ध होकर देखा। उन्होंने मनुष्यों, जानवरों, पेड़-पौधों व समुद्रों की रचना की थी और वह रहने के लिए एक अद‍्भुत स्थान लगता था। परंतु किसी चीज की कमी थी। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने छह भाइयों—दिन, रात, गरमी, सर्दी, बारिश और वायु..
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विकास के प्रारंभिक चरण में जब अधिक मानव- श्रम की आवश्यकता अनुभव हुई तो आदमी ने आदमी का शोषण करना शुरू कर दिया, और इसके साथ ही आदिम समाज के कृषियुग में दासप्रथा का जन्म हुआ । शोषित और दलित वर्ग की जो समस्याएँ स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक स्तर पर थीं, उसके बाद उन्होंने आर्थिक-राजनीतिक भयावह शक्ल अख्तिय..
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“मैंने आपसे अपने शिष्य को दीक्षा देने का अनुरोध किया था।” “किसको दीक्षा?” “जिसको आपने शिक्षा दी है, एकलव्य को।” “उसको मैंने शिक्षा नहीं दी है।” आचार्य ने बड़ी रुक्षता से कहा, “उसे तो मेरे मूर्ति ने शिक्षा दी है। एकलव्य को यदि दीक्षा लेनी है तो उसी मूर्ति से ले।” अब तो हिरण्यधनु के रक्त में उबाल आ गय..
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‘‘कुबड़ी-कुबड़ी का हेराना?’’ ‘‘सुई हेरानी।’’ ‘‘सुई लैके का करबे?’’ ‘‘कंथा सीबै!’’ ‘‘कंथा सीके का करबे?’’ ‘‘लकड़ी लाबै!’’ ‘‘लकड़ी लाय के का करबे?’’ ‘‘भात पकइबे!’’ ‘‘भात पकाय के का करबे?’’ ‘‘भात खाबै!’’ ‘‘भात के बदले लात खाबे।’’ और इससे पहले कि कुबड़ी बनी हुई मटकी कुछ कह सके, वे उसे जोर से ..
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नीरज नीर ने कुछ ही समयावधि में एक संभावनाशील कथाकार के रूप में अपनी पुख्ता पहचान बना ली है। उनका यह पहला कथा-संग्रह इस मायने में महत्त्वपूर्ण है कि उनके पास कहने को भी बहुत कुछ है और कहने की भंगिमा भी। दरअसल लेखक की परख इस बात से भी होती है कि वह किन चीजों को कहाँ से देख रहा है। इस मामले में नीरज नी..
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सर ‘करेक्ट’ बोलकर होंठों के कोनों में हलके से मुसकराते हुए ब्लैकबोर्ड की ओर मुड़ गए, लेकिन बोलने के साथ ही जबरदस्ती दबाई जानेवाली हँसी का धीमा फौवारा पीछे से छूटा था। यह मेरे द्वारा अंग्रेजी शब्दों के कस्बाई उच्चारण पर था। दबे शब्दों में मेरे उच्चारण की नकल की जा रही थी—जैसे नॉट को नाट, स्केल को इस्..
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इसी बीच प्रधानाध्यापक एकाएक आए और मुझे टोका, ‘‘देखिए, यहाँ पास में कोई खेल नहीं खेला जा सकता। चाहो, तो दूर उस मैदान में चले जाइए। यहाँ दूसरों को तकलीफ होती है।’’ मैं लड़कों को लेकर मैदान में पहुँचा। लड़के तो बे-लगाम घोड़ों की तरह उछल-कूद मचा रहे थे। ‘‘खेल! खेल! हाँ, भैया खेल!’’ मैंने कहा, ‘‘कौन स..
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मोनिका तभी कलम चलाती हैं, जब कोई घटना या पात्र उन्हें बेचैनी की सीमा तक परेशान कर देता है। उनके लिए कहानी महज शब्दों की नुमाइश या आतिशबाजी नहीं, बल्कि सामाजिक सरोकारों का यथार्थ साक्षात्कार होती है। स्त्री-पुरुष के आपसी अंतर्संबंधों की बारीकियाँ एवं विक्षिप्तता, उनका निपट अकेलापन, उससे पनपनेवाली मान..
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“मतलब यह कि यह त्रेता युग नहीं है, कलयुग है। ऊपर से घोर कलयुग यह कि मैं पुत्री की माँ हूँ। सीता की तरह सिर्फ पुत्रों को जन्म नहीं दिया। सो अगर मेरे कहने से धरती फट भी जाए तो आज की स्‍‍त्री धरती में कैसे समा सकती है, वह भी तब, जब पुत्री को जन्म दिया हो और रावण घर और बाहर दोनों जगह अपने दस शीश नहीं तो..
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मैं हक्का-बक्का रह गया। वह मछली ही थी। मछली के सिवा ऐसा कोई हँस ही नहीं सकता। थोड़ी ज्यादा लंबी हो गई थी। बदन हृष्‍ट-पुष्‍ट हो गया था। कुछ श्‍याम हो गई थी। घुटनों तक पहुँचने वाले बाल सूखे थे। ''मुझे पहचाना नहीं?’ ’ कहकर मछली फिर से हँसी। ''कल बड़े चाचा आए थे। तुम सब आए हो, ऐसी खबर दी। मुझे लगता ह..
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