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कहानी - Kuchh Bola Gaya, Kuchh Likha Gaya

कहानी - Kuchh Bola Gaya, Kuchh Likha Gaya
इस पुस्तक में संगृहीत निबंध दरअसल पारंपरिक निबंधों की संरचना से विद्रोह करते हैं, खासकर ललित निबंधों की मृतप्राय देह से प्रेत जगाने की कोशिश तो ये बिल्कुल ही नहीं हैं। इन निबंधों के सहारे न सिर्फ हमारे समाज, संस्कृति और पूरे समय की पड़ताल की जितनी कोशिश है, उतनी ही उसे नए संदर्भों में देखने-परखने की ललक भी है। इस पुस्तक के अधिकांश निबंध आज के जीवन-यथार्थ को उसके समूचे अर्थ-संदर्भों में प्रकट करते हैं। साथ ही समय की जटिलता और उसकी व्याख्या की अनिवार्यता में संवाद की स्थिति भी निर्मित करने का ये विवेकपूर्ण साहस और प्रयास हैं। 1947 से लेकर आज तक सत्ता और उसके सलाहकारों की भूमिका में उतरे उतावले बुद्धिजीवियों ने इन सबको अप्रासंगिक घोषित करने के लिए भाषा के खिलवाड़ से संस्कृति को सत्ता का हिस्सा बनाने के लिए बहुत ही श्रम के साथ नए मुहावरे गढ़े। ये निबंध इन चालाकियों को भी अनावृत करते हैं। इन निबंधों को पढ़ना अपने समय से संवाद है। —भालचंद्र जोशीअनुक्रमभूमिका के दो शद की अनिवार्यता— Pgs. 7पुरोवाक्— Pgs. 111. सा, साहित्य और संस्कृति— Pgs. 152. सहमति-असहमति के बीच— Pgs. 213. कला, साहित्य, संस्कृति और पुरखों के स्मरण का महापर्व— Pgs. 294. स्मृतियों के बहाने पूर्वजों का स्मरण— Pgs. 375. अँधेरे में की अर्द्धशती— Pgs. 436. या लुप्त हो जाएगा लोक— Pgs. 497. हमारे समय के महवपूर्ण कवि— Pgs. 548. माध्यम और साहित्य सृजन की चुनौतियाँ— Pgs. 669. मुतिबोध साहित्य पीठ की सार्थकता— Pgs. 7410. समाज और रचनाधर्मिता— Pgs. 7711. संस्कृति और पारदर्शिता— Pgs. 8112. यथार्थ और उपन्यास : एक टिप्पणी— Pgs. 8413. पत्रकारिता : एक संदर्भ— Pgs. 8614. छासगढ़ का पाठ्यक्रम और हिंदी— Pgs. 8915. बच्चों के साथ मानवीय व्यवहार : संदर्भ शिक्षा— Pgs. 9616. शिक्षा, राजनीति और विकास के बदलते आयाम— Pgs. 9917. शिक्षा का व्यवसायीकरण और गिरता शैक्षणिक स्तर— Pgs. 10418. हमारा समय और उसमें बड़े होते बच्चे— Pgs. 10719. जल्दी में आगे ही बढ़ते की वाहिश— Pgs. 11220. मनुष्य को रोबोट बनाने का क्रम— Pgs. 11621. सच के सामने मनुष्य— Pgs. 11922. जीवन-कला का संबंध मन से— Pgs. 12623. खुली बातचीत हो सेस संबंधी बीमारी/वर्जनाओं पर— Pgs. 12924. किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!— Pgs. 13225. राष्ट्रीय पर्व : वास्तविक पर्व यों नहीं?— Pgs. 13526. संवेदनशील प्रशासन— Pgs. 13827. स्थापित लोग— Pgs. 14228. बस्तर : चुनौतियाँ और संभावनाएँ— Pgs. 14529. जर्नी ऑफ अमरीका— Pgs. 148

कहानी - Kuchh Bola Gaya, Kuchh Likha Gaya

Kuchh Bola Gaya, Kuchh Likha Gaya - by - Prabhat Prakashan

Kuchh Bola Gaya, Kuchh Likha Gaya - इस पुस्तक में संगृहीत निबंध दरअसल पारंपरिक निबंधों की संरचना से विद्रोह करते हैं, खासकर ललित निबंधों की मृतप्राय देह से प्रेत जगाने की कोशिश तो ये बिल्कुल ही नहीं हैं। इन निबंधों के सहारे न सिर्फ हमारे समाज, संस्कृति और पूरे समय की पड़ताल की जितनी कोशिश है, उतनी ही उसे नए संदर्भों में देखने-परखने की ललक भी है। इस पुस्तक के अधिकांश निबंध आज के जीवन-यथार्थ को उसके समूचे अर्थ-संदर्भों में प्रकट करते हैं। साथ ही समय की जटिलता और उसकी व्याख्या की अनिवार्यता में संवाद की स्थिति भी निर्मित करने का ये विवेकपूर्ण साहस और प्रयास हैं। 1947 से लेकर आज तक सत्ता और उसके सलाहकारों की भूमिका में उतरे उतावले बुद्धिजीवियों ने इन सबको अप्रासंगिक घोषित करने के लिए भाषा के खिलवाड़ से संस्कृति को सत्ता का हिस्सा बनाने के लिए बहुत ही श्रम के साथ नए मुहावरे गढ़े। ये निबंध इन चालाकियों को भी अनावृत करते हैं। इन निबंधों को पढ़ना अपने समय से संवाद है। —भालचंद्र जोशीअनुक्रमभूमिका के दो शद की अनिवार्यता— Pgs.

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  • Stock: 10
  • Model: PP945
  • Weight: 250.00g
  • Dimensions: 18.00cm x 12.00cm x 2.00cm
  • SKU: PP945
  • ISBN: 9789384344641
  • ISBN: 9789384344641
  • Total Pages: 160
  • Book Language: Hindi
  • Available Book Formats: Hard Cover
  • Year: 2017
₹ 300.00
Ex Tax: ₹ 300.00