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पर्यावरण : प्रदूषण - Sanskriti Ki Satta

पर्यावरण : प्रदूषण - Sanskriti Ki Satta
न संस्कृति कोई भौतिक वस्तु है; न समाज; न इतिहास प्रदत्त। किसी विशिष्ट मानव समुदाय की सांस्कृतिक विशेषता उसके प्राणिक भौतिक रूप से अथवा व्यावहारिक संबंधों की रचना से निर्गलित होती है। वस्तुतः मानव समाज की रचना के सूत्र भी जिस विधि-विधान में संगृहीत होते हैं, उसका आधार मूल्यचेतना ही होती है। मूल्यचेतना निरपेक्षविधि यांत्रिक और अमानवीय होगी। इस मूल्यचेतना में ही संस्कृति का उत्स है। इस तरह संस्कृति अपने मूल रूप में ऐसी चेतना है, जो अनित्य व्यक्ति-सत्ता और ऐतिहासिक-सामाजिक सत्ता का अतिक्रमण करती है, किंतु जिसकी अभिदृष्टि से सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन मूल्यवान होते हैं। रचनानुभूति और अंतरंगसाधना से उच्छलित हो, संस्कृति एक संदेश के रूप में प्रवाहित होती है। —इसी पुस्तक से अनुक्रमभूमिका —Pgs.5संपादकीय —Pgs.131.समसामयिक भारतीय संस्कृति का आधार—गोविंद चंद्र पांडेय —Pgs.192.समकालीन कविता—अशोक वाजपेयी —Pgs.313.कवि की दृष्टि व्यापक होनी चाहिए—सुरेश चंद्र पांडेय —Pgs.544.संस्कृत भाषा का वैशिष्ट्‍य—वेम्पटि कुटुंब शास्त्री —Pgs.575.भक्तिकाव्य और तुलसी—अनंत मिश्र —Pgs.626.भारतीय भाषा चिंतन—माणिक गोविंद चतुर्वेदी —Pgs.707.भारतीय संस्कृति की सामासिकता और हिंदुत्व पर पुनर्विचार—अंबिका दत्त शर्मा —Pgs.788.संस्कृति और कला का अंतर्संबंध—कपिल तिवारी —Pgs.869.संस्कृत का वैश्विक स्वरूप—अभिराज राजेंद्र मिश्र —Pgs.9210.भाषा, अध्ययन की परंपरा और संस्कृति—कमलेश दत्त त्रिपाठी —Pgs.9911.शिक्षा और संस्कृति—कपिल कपूर —Pgs.10612.साहित्य और संस्कृति—रामदेव शुक्ल—Pgs. 11713.पाणिनीय भाषा-चिंतन : संदर्भ अष्टाध्यायी—श्रीनिवास वरखेड़ी —Pgs.13314.राष्ट्र, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद—पांडेय शशिभूषण ‘शीतांशु’ —Pgs.13815.गांधी की प्रासंगिकता व संभावना : हमारी जिम्मेदारी—सुधीर चंद्र —Pgs.15916.संस्कृति और धर्म का अंतर्संबंध—अच्युतानंद मिश्र —Pgs.166व्याख्यानमाला के मुख्य वक्ताओं का परिचय एवं आयोजन का विवरण —Pgs.169

पर्यावरण : प्रदूषण - Sanskriti Ki Satta

Sanskriti Ki Satta - by - Prabhat Prakashan

Sanskriti Ki Satta - न संस्कृति कोई भौतिक वस्तु है; न समाज; न इतिहास प्रदत्त। किसी विशिष्ट मानव समुदाय की सांस्कृतिक विशेषता उसके प्राणिक भौतिक रूप से अथवा व्यावहारिक संबंधों की रचना से निर्गलित होती है। वस्तुतः मानव समाज की रचना के सूत्र भी जिस विधि-विधान में संगृहीत होते हैं, उसका आधार मूल्यचेतना ही होती है। मूल्यचेतना निरपेक्षविधि यांत्रिक और अमानवीय होगी। इस मूल्यचेतना में ही संस्कृति का उत्स है। इस तरह संस्कृति अपने मूल रूप में ऐसी चेतना है, जो अनित्य व्यक्ति-सत्ता और ऐतिहासिक-सामाजिक सत्ता का अतिक्रमण करती है, किंतु जिसकी अभिदृष्टि से सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन मूल्यवान होते हैं। रचनानुभूति और अंतरंगसाधना से उच्छलित हो, संस्कृति एक संदेश के रूप में प्रवाहित होती है। —इसी पुस्तक से अनुक्रमभूमिका —Pgs.

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  • Stock: 10
  • Model: PP1360
  • Weight: 250.00g
  • Dimensions: 18.00cm x 12.00cm x 2.00cm
  • SKU: PP1360
  • ISBN: 9789387980686
  • ISBN: 9789387980686
  • Total Pages: 176
  • Edition: Edition 1
  • Book Language: Hindi
  • Available Book Formats: Hard Cover
  • Year: 2020
₹ 350.00
Ex Tax: ₹ 350.00