कविता - Kahi-Ankahi (Poems)
यह नियति ही हैजिसे भोगना हैसोचती हूँ हँसकर झेलूँपर जब भी ये सोचती हूँ रो पड़ती हूँभरे गले से तुम्हारा नाम लेना चाहती हूँतुम्हें कृतज्ञता के दो शब्द कहना चाहती हूँ। कितना तो हमें कहना-सुनना हैकह-सुन भी लेंगेइर्द-गिर्द के लोगों की दृष्टि में हम मौन हैंसिर्फ बरसों बाद मिले अपरिचितों की भाँति। देखते-देखतेनीले आकाश में बादलरुई के फाहे-से छा गए हैंएकाएक सफेद परोंवाले पक्षीअपने पंख फड़फड़ा के उड़ने लगे हैंमैं दुबककर तुम में और समा जाती हूँअपने बसेरे में, चिडि़या-सी! बस यों ही जीना सीख लिया हैअपने काँधों पर अपने ही अस्थिकलशों कोढोना शुरू कर दिया है।—इसी संग्रह सेबचपन में ही माँ के साए से संचित हो गई एक बालिका के मनोभावों का संकलन है यह पुस्तक। पिता की स्नेहिल छाँव और ममत्व से जिसका पालन हुआ, उस बालिका की आशा-उत्कंठाओं का संकलन है यह पुस्तक। ईश्वर सबकुछ ले ले, पर माता-पिता के साए से वंचित न करे क्योंकि वही दुनिया का सबसे सुरक्षित कवच होते हैं—यह प्रार्थना करनेवाली बालिका की ‘कही-अनकही’ भावनाओं का संकलन है यह पुस्तक।
कविता - Kahi-Ankahi (Poems)
Kahi-Ankahi (Poems) - by - Prabhat Prakashan
Kahi-Ankahi (Poems) - यह नियति ही हैजिसे भोगना हैसोचती हूँ हँसकर झेलूँपर जब भी ये सोचती हूँ रो पड़ती हूँभरे गले से तुम्हारा नाम लेना चाहती हूँतुम्हें कृतज्ञता के दो शब्द कहना चाहती हूँ। कितना तो हमें कहना-सुनना हैकह-सुन भी लेंगेइर्द-गिर्द के लोगों की दृष्टि में हम मौन हैंसिर्फ बरसों बाद मिले अपरिचितों की भाँति। देखते-देखतेनीले आकाश में बादलरुई के फाहे-से छा गए हैंएकाएक सफेद परोंवाले पक्षीअपने पंख फड़फड़ा के उड़ने लगे हैंमैं दुबककर तुम में और समा जाती हूँअपने बसेरे में, चिडि़या-सी!
- Stock: 10
- Model: PP760
- Weight: 250.00g
- Dimensions: 18.00cm x 12.00cm x 2.00cm
- SKU: PP760
- ISBN: 9789390366514
- ISBN: 9789390366514
- Total Pages: 48
- Edition: Edition 1
- Book Language: Hindi
- Available Book Formats: Hard Cover
- Year: 2021
₹ 400.00
Ex Tax: ₹ 400.00