यह नियति ही हैजिसे भोगना हैसोचती हूँ हँसकर झेलूँपर जब भी ये सोचती हूँ रो पड़ती हूँभरे गले से तुम्हारा नाम लेना चाहती हूँतुम्हें कृतज्ञता के दो शब्द कहना चाहती हूँ। कितना तो हमें कहना-सुनना हैकह-सुन भी लेंगेइर्द-गिर्द के लोगों की दृष्टि में हम मौन हैंसिर्फ बरसों बाद मिले अपरिचितों..