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भक्ति साहित्य - Dharmashastra Aur Jatiyon Ka Sach

भक्ति साहित्य - Dharmashastra Aur Jatiyon Ka Sach
भारत की आर्ष-परंपरा के बारे में औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक एक विशेष विचार का सृजन एवं पोषण किया गया है, जिसके अनुसार भारतीय समाज हजारों सालों से विभिन्न जातियों में बँटा हुआ था और ये जातियाँ एक-दूसरे को घृणा तथा हेयदृष्टि से देखती थीं। इसका कारण यह बताया गया कि ‘मनुस्मृति’ जैसी रचनाओं के कारण ही भारत में जाति प्रथा का सृजन हुआ और ऐसी रचनाओं के प्रभाव एवं दबाव के कारण ही आज तक भारत में जातियाँ प्रचलन में हैं। अंग्रेजों को जातियों को कलुषित करने से कई लाभ थे। वे भारतीय समाज को विखंडित कर सकते थे। दूसरे, भारतीय सृजन-परंपरा के मूल स्वरूप को ही भ्रष्ट कर सकते थे। यह वैचारिक स्थिति स्वतंत्रता तक आते-आते इतनी प्रबल हो गई कि स्वतंत्रता के बाद भी भारत के ऐतिहासिक लेखन एवं समाजशास्त्रीय लेखन ने औपनिवेशिक चर्चा को ही आदर्श मान उसका अंधानुकरण किया और ‘मूल रचनाओं एवं कृतियों’ तथा वास्तविक अवस्था का सांगोपांग अध्ययन करना आवश्यक ही नहीं समझा। प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन भारतीय मामलों के विद्वानों के एकपक्षीय और मनपसंद विषय, मनु के सिद्धांतों पर वैकल्पिक विचार प्रस्तुत करने का गंभीर प्रयास किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि कैसे अंग्रेज विद्वानों ने धर्म को कानून तथा धर्मशास्त्र के ग्रंथों को हिंदुओं का कानून बना दिया; और कैसे यह विचार-परंपरा अभी भी बलवान है।अनुक्रमप्राक्कथन —Pgs. 51. विधि क्या होती है —Pgs. 292. सार्वभौमिक आदर्शों के रूप में धर्म —Pgs. 623. धर्म के प्रतिपादक —Pgs. 934. धर्म के स‍्रोत —Pgs. 1235. उत्पीड़ित और उत्पीड़क —Pgs. 1596. शूद्र कथा रचना —Pgs. 1967. धर्मशास्त्रों में जातियाँ —Pgs. 2378. धर्म और व्यवहार —Pgs. 2699. जनगणना, औपनिवेशिक परिवेश और जातियाँ —Pgs. 298संदर्भ ग्रंथ सूची —Pgs. 331

भक्ति साहित्य - Dharmashastra Aur Jatiyon Ka Sach

Dharmashastra Aur Jatiyon Ka Sach - by - Prabhat Prakashan

Dharmashastra Aur Jatiyon Ka Sach - भारत की आर्ष-परंपरा के बारे में औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक एक विशेष विचार का सृजन एवं पोषण किया गया है, जिसके अनुसार भारतीय समाज हजारों सालों से विभिन्न जातियों में बँटा हुआ था और ये जातियाँ एक-दूसरे को घृणा तथा हेयदृष्टि से देखती थीं। इसका कारण यह बताया गया कि ‘मनुस्मृति’ जैसी रचनाओं के कारण ही भारत में जाति प्रथा का सृजन हुआ और ऐसी रचनाओं के प्रभाव एवं दबाव के कारण ही आज तक भारत में जातियाँ प्रचलन में हैं। अंग्रेजों को जातियों को कलुषित करने से कई लाभ थे। वे भारतीय समाज को विखंडित कर सकते थे। दूसरे, भारतीय सृजन-परंपरा के मूल स्वरूप को ही भ्रष्ट कर सकते थे। यह वैचारिक स्थिति स्वतंत्रता तक आते-आते इतनी प्रबल हो गई कि स्वतंत्रता के बाद भी भारत के ऐतिहासिक लेखन एवं समाजशास्त्रीय लेखन ने औपनिवेशिक चर्चा को ही आदर्श मान उसका अंधानुकरण किया और ‘मूल रचनाओं एवं कृतियों’ तथा वास्तविक अवस्था का सांगोपांग अध्ययन करना आवश्यक ही नहीं समझा। प्रस्तुत पुस्तक में प्राचीन भारतीय मामलों के विद्वानों के एकपक्षीय और मनपसंद विषय, मनु के सिद्धांतों पर वैकल्पिक विचार प्रस्तुत करने का गंभीर प्रयास किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि कैसे अंग्रेज विद्वानों ने धर्म को कानून तथा धर्मशास्त्र के ग्रंथों को हिंदुओं का कानून बना दिया; और कैसे यह विचार-परंपरा अभी भी बलवान है।अनुक्रमप्राक्कथन —Pgs.

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  • Stock: 10
  • Model: PP1990
  • Weight: 250.00g
  • Dimensions: 18.00cm x 12.00cm x 2.00cm
  • SKU: PP1990
  • ISBN: 9789352661299
  • ISBN: 9789352661299
  • Total Pages: 336
  • Edition: Edition 1
  • Book Language: Hindi
  • Available Book Formats: Hard Cover
  • Year: 2020
₹ 700.00
Ex Tax: ₹ 700.00