Menu
Your Cart

भक्ति साहित्य - Awadhi Lok Sahitya Mein Prakriti Pooja

भक्ति साहित्य - Awadhi Lok Sahitya Mein Prakriti Pooja
लोक अपनी नैसर्गिक स्थितियों में स्वयं प्रकृति का पर्याय है। लोक दृष्टि का विकास प्रकृति के सहजात संस्कारों का परिणाम ही है। लोक और प्रकृति के अंर्तसंबंधों के संदर्भ में विकसित हमारे जीवन के अनेक सांस्कृतिक आयामों में प्रकृति और मनुष्य के बीच जो अभेद दृष्‍ट‌ि है, वह मानती है कि जैसे मनुष्य रक्षणीय है, वैसे ही प्रकृति रक्षणीय है। प्रकृति और मानवीय सरोकारों से संबद्ध मूल्य चेतना हमारे लोक साहित्य में, लोक संस्कारों में और आचारों-व्यवहारों में निरंतर अभिव्यक्त होती रही है। लोक-विद् डॉ. विद्या विंदु सिंह ने प्रस्तुत कृति में इसी मूल्य दृ‌ष्‍ट‌ि का उन्मोचन किया है। लोक परंपरा में उपस्थित प्रकृति की जीवंत हिस्सेदारी जिन विश्‍वासों और जिन आस्थाओं में प्रकट होती है—उनका सम्यक् और सार्थक निर्वचन प्रस्तुत कृति में संभव हुआ है। आज जब हम प्रकृति के साथ जुड़़े रागानुबंध को तोड़कर नितांत अकेले पड़ते जा रहे हैं और इस परिदृश्य से उत्पन्न अनेक खतरों को झेल रहे हैं—तब हमें प्रकृति के साथ होने का अहसास यह कृति दिलाती है। अपनी सहज संवेद्यता में यह कृति समकालीन जीवन की अनेक जड़ताओं को भंग करने में अपनी भूमिका का निर्वाह करेगी।—डॉ. श्यामसुंदर दुबे निदेशक, मुक्‍त‌िबोध सृजनपीठ डॉ. हरिसिंह, गौर केंद्रीय विद्यालय सागर (म.प्र.)अनुक्रमयह लोक-प्रकृति संवाद बना रहे (डॉ. एस. शेषारत्नम्)—7प्रकृति और मनुष्य का एक परिवेश —91. भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजा—132. प्रकृति पूजा में पर्यावरण चेतना—203. प्रकृति के प्रति मनुष्य का दायित्व—264. लोक साहित्य में वृक्षों का महव और वृक्षोपासना—355. सुख-दुख के साथी, पक्षी और जीव-जंतु—546. लोक साहित्य में पंचतव—697. लोक साक्षी ग्रह-नक्षत्र—848. गंगा देहु भगीरथ पूत —969. युग-युग से गंगा बोल रही हैं—12410. ऋतु चक्र और जीवन चक्र—13311. विश्व धरोहर का संरक्षण और इकीसवीं सदी—218

भक्ति साहित्य - Awadhi Lok Sahitya Mein Prakriti Pooja

Awadhi Lok Sahitya Mein Prakriti Pooja - by - Prabhat Prakashan

Awadhi Lok Sahitya Mein Prakriti Pooja - लोक अपनी नैसर्गिक स्थितियों में स्वयं प्रकृति का पर्याय है। लोक दृष्टि का विकास प्रकृति के सहजात संस्कारों का परिणाम ही है। लोक और प्रकृति के अंर्तसंबंधों के संदर्भ में विकसित हमारे जीवन के अनेक सांस्कृतिक आयामों में प्रकृति और मनुष्य के बीच जो अभेद दृष्‍ट‌ि है, वह मानती है कि जैसे मनुष्य रक्षणीय है, वैसे ही प्रकृति रक्षणीय है। प्रकृति और मानवीय सरोकारों से संबद्ध मूल्य चेतना हमारे लोक साहित्य में, लोक संस्कारों में और आचारों-व्यवहारों में निरंतर अभिव्यक्त होती रही है। लोक-विद् डॉ.

Write a review

Please login or register to review
  • Stock: 10
  • Model: PP2017
  • Weight: 250.00g
  • Dimensions: 18.00cm x 12.00cm x 2.00cm
  • SKU: PP2017
  • ISBN: 9789382898504
  • ISBN: 9789382898504
  • Total Pages: 224
  • Edition: Edition 1st
  • Book Language: Hindi
  • Available Book Formats: Hard Cover
  • Year: 2017
₹ 400.00
Ex Tax: ₹ 400.00