‘‘इरशाद ख़ान सिकन्दर अपना अलग रास्ता चुनने की कोशिश में हैं। उसके मज़ामीन ज़मीन से जुड़े हैं और मौजूद की अक्कासी करते हैं। ख़याली महबूब से परे वो जीते-जागते लोगों से हमकलाम हैं।’’ - रफ़ी रज़ा ‘‘इरशाद की शायरी में घर भी है बाज़ार भी है। नौजवानी का ख़ुमार भी है और मुहब्बत में किसी का इन्तिज़ार भी है। ..